Saturday, December 5, 2009

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नई नहीं है बात न जाने फिर क्यों लेकिन
आँखे उसकी मुझसे कुछ कुछ पूछ रही हैं
बदल गयी है उसके चेहरे कि रंगत भी
सालों में कुछ बदला तो इतना बदला है

उसके मन कि बात न जाने सच्ची कितनी
मुझको फिर से दोषी बनना होगा शायद
इस चिता को जले हुए तो अरसा बीता
फिर क्यों इसमें से आज धुआं निकला है

मुझको  पानी कि ठंडक का पता नहीं था
डूब गया हूँ इतना गहरा पता नहीं था
उसने बोला था समय के  पंख हैं होते
मेरा तो सालों का सफ़र ठहर गया है

सही गलत तो सारी  है गणित कि बातें
सब को सब समझाना कैसे मुमकिन होता
कहते हैं सब कुछ पहले से तय होता है
फिर क्यों लगता है कहीं तो गलत हुआ है

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