Wednesday, December 27, 2017

39

एक मुद्दत से शहर ए  दिल्ली में ,
होशवाले नज़र नहीं आये

उसके दरवाज़े तक तो आये थे हम ,
और अंदर मगर नहीं आये

क्या सितम है के तेरी महफ़िल में
धड़ तो आये सर नहीं आये

उन परिंदो का फिक्रमंद हूँ  जो
शाम से अपने घर नहीं आये

ये सफर साथ तय किया हमने
वक़्त आया तो तुम  नहीं आये


एक शख़्श पे तुमने जां  बिछा दी है
क्या होगा वो अगर नहीं आये

Tuesday, December 26, 2017

38

तेरे हर ख़्वाब में मेरा भी बसेरा करना
यहाँ मुमकिन नहीं हर शब को सवेरा करना

कितना मुश्किल है उस शख़्स को मेरा करना
कितना मुश्किल है उस शख़्स को तेरा करना

मुझको एक उम्र लगी जुगनुओं को लाने में
तुमको आसान था इस घर में अँधेरा करना

इन परिंदों को भला किसने बताया होगा
कहाँ उड़ना और किस शाख़ पे डेरा करना

बादलों हो अगर तो जंग ए आफ़ताब करो
तुमसे होता है सिर्फ़ चाँद का घेरा करना

36

तुम बेवजह बदनाम करोगे
मालूम था ये काम करोगे

ज़िंदगी काफ़ी न थी मेरी
अब नींद भी हराम करोगे

मैं बनाता हूँ महल रेत का
तुम बारिश तमाम करोगे

ये ज़िद भी क्या ज़िद है
तुम्हीं सुबह तुम्हीं शाम करोगे

गुज़र जाने दो मुझे फिर
इंशाल्लाह आराम करोगे

35

बस धुआँ है जहाँ तक नज़र जाए
 हाल एसा हो तो आदमी किधर जाए

एक ख़्वाहिश है के मेरी खुदी के आगे
वो भी  टूटे और टूट के बिखर जाए

अब मेरी अपनी कोई मंज़िल ही नहीं
चला जाता हूँ के जिस तरफ़ शहर जाए

और रहता भी किस तरह में घर में अपने
घर मुझसे ये कहता है अपने घर जाए

कहाँ तन्हाई का आलम कहाँ आदत तेरी
ये तो हम है मियाँ, वरना तो कोई मर जाए

Wednesday, December 20, 2017

33

शब ए बहार का और कितना इन्तज़ार करें
अब और क्या करें जाना ,चलो प्यार करें

इससे पहले के बदल जाए मिज़ाज ए वफ़ा
हम वफ़ादारी का आपस में एक क़रार करें

वो सो रहा है जिससे हमको है वहशत
अभी ये वक़्त है बुज़दिल के उस पे वार करें

जाँनिसार मुझको समझ ना कभी मेरे हमदम
जाँ बची ही कहाँ है जो जाँ निसार करें

ये अंजुमन बड़े रसूख़ की नुमाया है
यहाँ हर एक आदमी का शौक़ है शिकार करें

Wednesday, December 13, 2017

32

वहशत ए फ़िराक़ ज़िंदगी क्या हाल है
तेरे साथ हो या तेरे बग़ैर ,जीना मुहाल है

मुझे देख के तेरा यूँ मुँह मोड़ना हर बार
गर इत्तिफ़ाक़ है तो ग़ज़ब है कमाल है

तेरे शहर में होती हैं पत्थर की बारिशें
मैं लौट आया मेरे पास शीशे की ढाल है

ए फ़रिश्तों कभी मेरे घर भी आओ
ज़िंदगी के जानिब मेरा एक सवाल है

मेरा अंजाम जानने में इतनी मशक्कतें
तारीख़ में मेरे जैसी कितनी मिसाल है

अब बुज़दिली कहो या आदमी का हश्र
जो पानी है रगों में उसका रंग लाल है

31

झूठ जब मुझ से कह रहा होगा
दिल उसका भी सुन रहा होगा

इतनी शिद्दत से चाहता हूँ तुम्हें
लोग कहते हैं सरफिरा होगा

मुझसे मिलने को वो नहीं आया
काम कोई मुझसे भी बड़ा होगा

आज कहते हो कि मोहब्बत है
कल को जाने क्या वास्ता होगा

 वो मेरा नाम तक तो भूल गया
 इससे ज़्यादा अब और क्या होगा

इतने लोग देख कर सुकून आया
मेरा मातम तो ख़ुशनुमा होगा

30

मुझको तुम्हारा गुमान होना चाहिए क्या ?
मेरे चेहरे पे भी निशान होना चाहिए क्या ?

तुम इम्तिहान लेते हो शिद्दत का मेरी
सच कहो मेरा इम्तिहान होना चाहिए क्या ?

ये 
 वहशत  फ़िराक़ और ये एकाकी
अब सुबह भी एक जाम होना चाहिए क्या ?

यूँ चला आता हूँ हर बार शहर तेरे
दिल्ली में मेरा मकान होना चाहिए क्या ?

तेरी उम्मीद, मेरे ख़्वाब और कुछ हवा
घर में और भी सामान होना  चाहिये क्या ?

सारे मुंसिफ़ खड़े नज़र आते हैं तेरे हक में
फ़ैसला और भी आसान होना चाहिए क्या ?

29

और इस तरह वो शरारत करते हैं
मेरी हर बात को अदालत करते हैं

इश्क़, शहर आदमी ओ हवा
हम तो सबसे शिकायत करते हैं

आजकल कुछ नहीं करता हूँ मैं
आजकल आप क़यामत करते हैं

आज उनकी गली से गुज़रते हैं चलो
आज उन पर इनायत करते हैं

28

वो भी मेरा क़र्ज़ चुकाने आयेंगे एक दिन
मेरी ग़ज़लें तन्हाई में गायेंगे एक दिन

मैंने हर रास्ते पर एक दो पेड़ लगायें है
शायद इन रस्तों से होकर जाएँगे एक दिन

मेरे घर में मुझसे कोई बात नहीं करता
लेकिन तेरी सबसे बात कराएँगे एक दिन

लुटा हुवा मैं एक सौदागर वापस आया हूँ
मेरे रहबर मेरा हिस्सा लाएँगे एक दिन

तुमने अपने शहर में शेरों को ला रखा है
ये जंगल के राजा तुम्को खाएँगे एक दिन

27

आदमी बनता के खुदा बनता
और तेरे लिए क्या बनता

तूने आँधी बना के छोड़ दिया
बात तो जब थी के हवा बनता

हम,बुज़दिली ओ सनक एक साथ
फिर ना कैसे ये  कहकहा बनता

आप साथ उसके नहीं रह सकते
ग़ोया अच्छा सा आशियाँ बनता

सिर्फ़ घर बनाना मुश्किल है यहाँ
वरना दिल्ली में क्या नहीं बनता

Saturday, December 2, 2017

26

फिर उसने ख़त पढ़े हैं शायद
अश्क़ आँखो से गिरे हैं शायद


तुमसे मिल के भी कुछ नहीं होता
मेरे कुछ ख़्वाब मरे हैं शायद


हर घड़ी ऐहताराम करते हैं
आप शहर में नए हैं शायद


मुझको पहचानने में इतना वक़्त
वो दोस्तों से घिरे हैं शायद


अब ना तखती हैं ना नारे हैं जनाब
नई दिल्ली में लोग डरे हैं शायद

25

कोई शिकवा दरमियाँ नहीं
तो भी गुफ़्तगू आसाँ नहीं


मैं चुप सा रहने लगा हूँ अब
और,तुम्हारे मुँह में ज़ुबां नहीं


बड़े लोग तेरे शहर में हैं
बता मिलूँ कहाँ और कहाँ नहीं


कैसे मैं कहूँ मुझे भूल जा
मुझे ख़ुद पे इतना गुमा नहीं


मेरी आशिक़ी का सबब ना पूछ
मेरे रंज ओ ग़म का बयाँ नहीं


तेरा हाथ थामे निकल चलूँ
कहीं एसा कोई जहाँ नहीं

Monday, November 13, 2017

24

ये उसकी दूर होने की सफ़ाई है 
थोड़ी मजबूरी थोड़ी बेवफ़ाई है 
कल तलक जान थी वो मेरी
आज मेरी  जान पे बन आइ है 

हुस्न वाले धोखा देंगे अक्सर 
बुज़ुर्गों की सलाह में सच्चाई है
बहुत दिनो बाद हूँ घर लौटा
कुछ किताबों से धूल हटाई है 

मेरा लुटना तेरे शहर में आकर
मेरे इश्क़ की कमाई है 
चुपचाप मेरे कान में सच कह जा
एसी भी क्या रूसवाई है

क्या ख़्वाब ए मोहब्बत मेरा था
क्या हक़ीक़त तूने दिखाई है
हम कभी एक हो नहीं सकते
बात देर से समझ आइ है

23

सब मरासिम नहीं हैं साथ निभाने के लिए 
कई होते हैं इस दिल को दुखाने के लिये

तेरी महफ़िल में मेरा काम सिर्फ़ इतना है 
लोग कुछ चाहिए बस भीड़ बढ़ाने के लिए

मुझसे मिलना तेरा और मुझसे दूर हो जाना
इतना काफ़ी है इस जान के जाने के लिए

जो ज़माना कभी ना तेरा था ना मेरा था
तूने छोड़ा मुझे उस शान ए ज़माने के लिए

कई मिलते मेरी बात समझने वाले 
नहीं मिलता है कोई साथ निभाने के लिए

Saturday, November 11, 2017

22

मुहब्बत करता है, मुहब्बत समझता है
एसा शख़्स आजकल कहाँ मिलता है

मैंने रूह तक झाँक कर देखा है
इश्क़ बेरंग है, पर हर घड़ी रंग बदलता है

तुम्हारे होने से होता भी तो क्या होता
शाम अब भी होती है, दिन अब भी ढलता है

और इस शहर को छोड़ के जाता कहाँ
वो हवा बदलने के लिए घर बदलता है

हुज़ूर मोम है या फ़ौलाद क्या मालूम
आफ़ताब के आगे तो सब पिघलता है

माँग लेना माफ़ी खुदा से एक रोज़
अभी इश्क़ में हो, अभी सब चलता है

21

निगाहों निगाहों में मिलते रहे हम
न तुमने कहा कुछ न मेने सुनाया
वो दूरी कहाँ थी, वो कुछ फासले थे
न तुम आगे आयी न मैं आगे आया

न तुम थीं अकेले, न मैं था अकेले
थे चारों  तरफ बस सवालों के घेरे
खुद ही सवालों में उलझे रहे हम
न तुमको मिला कुछ न मैंने  ही पाया.

लकीरों को दोषी कहें भी तो कब तक
ये हालात आखिर सहें भी तो कब तक
ये बातें किताबी सबक बन रहीं हैं
न अपना है कोई न कोई पराया.

20

इस रात की गहराई में कुछ, आवाज़ बदलती जाती है
एक सन्नाटा सा पसरा है, ख़ामोशी सी छा जाती है ..
कुछ टप टप करती बूदें हैं, कुछ आड़े तिरछे साये हैं
ये मेरा ही घर लगता है, फिर नींद कहाँ खो जाती है.

वो अक्सर मुझसे पूछते हैं, कोई राज़ तुम्हारे दिल में है
मैं अपने दिल से पूछ रहा, क्यों नौबत ऐसी  आती है.
ये  लोग पुराने कहते हैं, सपने भी सच्चे होते हैं,
वो आंख लगाकर बेठे हैं,बस उम्र गुज़रती जाती है.

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