कभी मुहब्बत कभी रुसवाई लगे, भीड़ में भी अब तन्हाई लगे,
बदलता रहा वो रंग कुछ ऐसे, मुझे मुकद्दर मेरा हरजाई लगे.
लुट गया दीवाना मैखाने में, बेटे की किताब महंगाई लगे..
अजब दस्तूर है ज़माने का, जिस्म बेचना भी कमाई लगे
मेरी ताकत की नुमाइश क्या होगी, तेरी आँखों में बेवफाई लगे
बड़ी देर में समझा साहब , उसको प्यारी मेरी जुदाई लगे.
कम हुआ धूप में चलना अब, मुझसे खफा मेरी परछाई लगे
फैसला मंज़ूर हुआ दोनों तरफ , मुझे सजा उसे रिहाई लगे !
बदलता रहा वो रंग कुछ ऐसे, मुझे मुकद्दर मेरा हरजाई लगे.
लुट गया दीवाना मैखाने में, बेटे की किताब महंगाई लगे..
अजब दस्तूर है ज़माने का, जिस्म बेचना भी कमाई लगे
मेरी ताकत की नुमाइश क्या होगी, तेरी आँखों में बेवफाई लगे
बड़ी देर में समझा साहब , उसको प्यारी मेरी जुदाई लगे.
कम हुआ धूप में चलना अब, मुझसे खफा मेरी परछाई लगे
फैसला मंज़ूर हुआ दोनों तरफ , मुझे सजा उसे रिहाई लगे !
कम हुआ धूप में चलना अब, मुझसे खफा मेरी परछाई लगे
ReplyDeleteफैसला मंज़ूर हुआ दोनों तरफ , मुझे सजा उसे रिहाई लगे !
बढ़िया रचना
बदलता रहा वो रंग कुछ ऐसे, मुझे मुकद्दर मेरा हरजाई लगे...
ReplyDeletein mukaddaron ne kab kiskaa sath diyaa hai hitesh ji ....
hitesh jee bahut badiya likhte hai aap.......
ReplyDeleteकम हुआ धूप में चलना अब, मुझसे खफा मेरी परछाई लगे
फैसला मंज़ूर हुआ दोनों तरफ , मुझे सजा उसे रिहाई लगे !
Wah kya baat hai........
again...terrific! long time though since you wrote last.
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ReplyDeleteलाजवाब प्रस्तुति
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ReplyDelete♥
प्रिय बंधुवर हितेश जी
सस्नेहाभिवादन !
शायद पहली बार आया हूं … सुकून मिला :)
कभी मुहब्बत कभी रुसवाई लगे
भीड़ में भी अब तन्हाई लगे
बदलता रहा वो रंग कुछ ऐसे
मुझे मुकद्दर मेरा हरजाई लगे
अजब दस्तूर है ज़माने का
जिस्म बेचना भी कमाई लगे
तमाम अश्'आर अच्छे हैं …
आप छंद साधना के लिए मनोयोग से प्रयासरत हैं , ब्लॉग पर लगी अन्य रचनाओं से भी यही सिद्ध होता हैं
शुभकामनाएं हैं !
बधाई और मंगलकामनाओं सहित…
- राजेन्द्र स्वर्णकार