Tuesday, December 26, 2017

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बस धुआँ है जहाँ तक नज़र जाए
 हाल एसा हो तो आदमी किधर जाए

एक ख़्वाहिश है के मेरी खुदी के आगे
वो भी  टूटे और टूट के बिखर जाए

अब मेरी अपनी कोई मंज़िल ही नहीं
चला जाता हूँ के जिस तरफ़ शहर जाए

और रहता भी किस तरह में घर में अपने
घर मुझसे ये कहता है अपने घर जाए

कहाँ तन्हाई का आलम कहाँ आदत तेरी
ये तो हम है मियाँ, वरना तो कोई मर जाए

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